तिलिस्म टूट चुका है!


 सुरण्या अय्यर

9 June 2024


5 जून 2024 को सुबह जब आंखें खुली तो हमारे सामने एक हैरतअंगेज़ नज़ारा था। अख़बारों की सुर्खियां बता रही थीं कि नरेंद्र मोदी एक बार फिर सत्ता में लौट रहे हैं। लेकिन सिर्फ़ एक दिन पहले चुनाव में हमने नरेंद्र मोदी के हाथों भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की जीत को हार में बदलते देखा था

इन चुनावों में किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला। इस लिहाज़ से देखें तो सभी पार्टियां हारी हैं, मगर सबसे मुकम्मल शिकस्त भाजपा को ही मिली है। 2024 की संसद में भाजपा ने ही बहुमत गवां दिया है। इसके अलावा, भाजपा को सभी दलों के मुकाबले सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है। वह पहले से 62 कम सीटों के साथ संसद में लौटी है। 

भाजपा ने न केवल अपनी 20 फ़ीसदी से ज्यादा सीटें गवां दी हैं बल्कि उसके प्रतिद्वंद्वी इंडिया गठबंधन की सभी पार्टियों की सीटों में भारी इज़ाफ़ा भी हुआ है। कांग्रेस की सीटें लगभग दोगुनी हो चुकी हैं जबकि इस बार उसने पिछली बार से कम सीटों पर चुनाव लड़ा था। समाजवादी पार्टी की सीटों में सात गुना से ज्यादा बढ़ोतरी हुई है।

ये दोनों पार्टियां संसद में दूसरे और तीसरे नंबर की पार्टियाँ बन गई हैं। गौरतलब है कि इन पार्टियों ने जो सीटें जीती हैं ज्यादातर भाजपा के उम्मीदवारों को हराकर ही जीती हैं। ठीक यही कहानी चौथी सबसे बड़ी पार्टी, ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), के बारे में भी सच है। टीएमसी की सीटों में लगभग एक तिहाई इज़ाफ़ा हो चुका है।

टीएमसी का प्रदर्शन इसलिए और भी ज्यादा दिलचस्प है क्योंकि बंगाल में उसी की सरकार थी और सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ़ असंतोष की आशंका बनी हुई थी। इसके बावजूद टीएमसी ने इन चुनावों में भाजपा को करारी शिकस्त दी है।

उत्तर प्रदेश में आम धारणा रही है कि समाजवादी पार्टी के पिछले शासनकाल के दौरान कानून व्यवस्था की स्थिति धराशाई हो चुकी थी, हर तरफ अपराधियों का बोलबाला था। समाजवादी पार्टी की यह छवि वास्तविकता से कितना मेल खाती है इस बात पर बहस करने का फिलहाल कोई मतलब नहीं है, लेकिन जब चुनाव के दिन तक लोगों में ऐसी छवि हो, तब भी समाजवादी पार्टी इतनी बड़ी संख्या में सीटें हासिल कर ले , यह मामूली बात नहीं है। 

कांग्रेस पार्टी ने अपने राष्ट्रीय अभियान के लिए राहुल गांधी को सबसे प्रमुख चेहरा बनाया जिनकी नेतृत्व क्षमता के बारे में लंबे समय से लोगों में संदेह रहा है। पिछले कुछ महीनों में ये संदेह कच्छ कम हो चुका था, मगर ख़त्म नहीं हुआ था। इसके बावजूद लोगों ने कांग्रेस को इतने बड़े पैमाने पर वोट दिया, ये नोट करने लायक बात है।

उत्तर प्रदेश में इस बार बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का वोट बड़े पैमाने पर इंडिया गठबंधन की पार्टियों को मिला। बसपा के वोटरों में जाति, सांप्रदायिकता और सामाजिक न्याय जैसे सवालों पर इंडिया गठबंधन के घटक दलों के प्रति अविश्वास के बावजूद उन्होंने गठबंधन को वोट दिया।

इन सारी बातों से यही निष्कर्ष निकलता है कि टीएमसी और इंडिया गठबंधन के उत्तर भारतीय दलों को मिला जनादेश सबसे स्पष्ट रूप से और सबसे पहले भाजपा के खिलाफ़ दिया गया जनादेश है।

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टीएमसी और इंडिया गठबंधन के उत्तर भारतीय दलों को मिला जनादेश सबसे स्पष्ट रूप से और सबसे पहले भाजपा के खिलाफ़ दिया गया जनादेश है।


कहने की ज़रूरत नहीं कि यह अस्वीकृति सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी की अस्वीकृति है। उनके बिना आज भाजपा है ही क्या? यह एक ऐसी पार्टी है जिसको लोगों ने नहीं, बल्कि खुद उसके अपने नेता नरेंद्र मोदी ने ही तहस-नहस कर दिया है।

आज नरेंद्र मोदी ही भाजपा हैं और भाजपा ही नरेंद्र मोदी है।

मोदी शुरू से ही तानाशाह नेता रहे हैं। इस साल तक आते-आते तो उन्होंने भाजपा को सिर्फ वन-मैन पार्टी में तब्दील कर दिया था। उन्होंने भाजपा के राज्य स्तर के जनाधार वाले और सफल नेताओं को हाशिये पर धकेल दिया। राजस्थान और मध्य प्रदेश में आप इसे साफ़ देख सकते हैं। आम चुनाव से सिर्फ कुछ दिन पहले ही उन्होंने पुराने नेताओं को हटाकर बिलकुल अनजान चेहरों को उम्मीद्वार बनाया। इन नए उम्मीद्वारों की एकमात्र विशेषता बस इतनी थी कि उन्हें नरेंद्र मोदी ने चुना था

इसके बाद मोदी ने भाजपा के चुनाव अभियान को "मोदी की गारंटी" के नारे के तहत अपनी निजी परियोजना में तब्दील कर डाला। मोदी की इस गारंटी में था क्या? अभियान की शुरुआत में ही ये बात साफ़ हो चुकी थी कि उसमें खुद मोदी के अलावा कोई गारंटी नहीं है!
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"मोदी की गारंटी"''तुम मुझे वोट दो, और बदले में तुम्हें मिलूँगा... मैं!''


ज़रा सोच कर देखिये : ''तुम मुझे वोट दो, और बदले में तुम्हें मिलूँगा... मैं!'' मोदी द्वारा एक परफॉर्मर के तौर पर और भारत के लोगों द्वारा एक तमाशबीन के तौर पर इस तरह के मंच के चुनाव से किस तरह के नैतिक और मनोवैज्ञानिक निहितार्थ निकलते हैं इस पर तो कई गंभीर लेख और अनुसंधान करने की जरूरत है। यह कैसा अपमानजनक नजारा था!

इस वोट को भाजपा उर्फ नरेंद्र मोदी के खिलाफ वोट के रूप में देखना बहुत ज़रूरी है। अगर संसदीय राजनीति बहुमत छिन जाने के बावजूद भाजपा को सत्ता में बने रहने की संभावना मुहैया करा देती है, तो भी उसे कम-से-कम नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के पद से और उनके चीफ एग्जीक्यूटिव तथा चुनाव अभियान प्रबंधक अमित शाह को सरकार से हटाकर जनता की भावनाओं का सम्मान तो करना ही चाहिए।

इस नापाक त्रिमूर्ति के तीसरे नायक अजीत डोवाल को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। मोदी, शाह और डोवाल की विघटनकारी और कातिलाना चालबाजियों का ही नतीजा है कि पंजाब और कश्मीर में कई आतंकवादी और चरमपंथी तत्व भी भारत की अखंडता के समर्थक उम्मीदवारों को हराकर संसद में पहुंच गए हैं।

ये मोदी और शाह की ध्रुवीकरण कि राजनीति का ही नतीजा है। हमारी राजनीति में भाजपा द्वारा डाले गए विघटन और दहशत की उपजाऊ मिट्टी में अब ये उन्मादी लोग एक बार फिर जड़ें जमा रहे हैं, जबकि इन दोनों राज्यों में भाजपा खुद ख़त्म हो चुकी है।

भाजपा इन जगहों पर हमारे लोगों से नफरत और असंतोष की भारी कीमत किस हद तक वसूल रही है, जब वह वहां एक भी सीट नहीं जीत पा रही है? कश्मीर में तो वह एक सीट पर भी खड़ी नहीं हो पाई!

मोदी से पहले, भाजपा अपने गलत विचारों के सबसे विनाशकारी और केवल बुरे प्रभावों के बीच एक रास्ता खोज लेती थी। लेकिन मोदी के रहते बीजेपी के लिए ऐसी कोई संभावना नहीं है। जैसा कि हमने मणिपुर में देखा, मोदी के पास इस समस्या को समझने की भी क्षमता नहीं है कि भड़काऊ राजनीति और दमनकारी राज्य उपायों में शामिल होने से क्या खतरे हो सकते हैं।

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The King is Dead!


क्या भाजपा को अंदाज़ा भी है कि मोदी ने उसे किस हद तक खोखला कर डाला है? अब तो लद्दाख भी उसके हाथ से जा चुका है। वहां के लोगों ने एकजुट होकर एक निर्दलीय मुस्लिम उम्मीदवार को संसद में भेजा है। शेष भारत के लोगों को शायद यह मालूम भी नहीं होगा, मगर लद्दाख में बौद्धों और मुसलमानों के बीच विभाजन और ध्रुवीकरण की आशंका हमेशा रही है। इसके बावजूद, इस दफे वहां के लोगों ने एकतरफ़ा तौर पर भाजपा के खिलाफ ही वोट दिया है।

भाजपा और संघ परिवार भारत के उत्तरी भागों के "एकीकरण" की बात करते रहते हैं, लेकिन उन्हें वहां के लोगों और उनकी दृष्टिकोण के बारे में क्या जानकारी है? लद्दाख में पिछले दिनों ही सोनम वांगचुक के नेतृत्व में इतना बड़ा आन्दोलन हुआ लेकिन मोदी की सरकार ने उनसे बात करना तक ज़रूरी नहीं समझा

बौद्ध लद्दाखी कहेंगे कि "हम भारत के साथ हैं"। इस अभिव्यक्ति में अर्थ की कई परतें हैं। इसमें यह धारणा शामिल है कि उन्होंने "भारत के साथ" और "चीन के साथ" के बीच एक विकल्प चुना है, और वे तिब्बत की तरह नहीं बनना चाहते हैं, जहां चीनी सरकार द्वारा जमकर दमन किया गया था।

लेकिन चीनी सरकार ने तब से तिब्बत में कम कठोर रणनीति अपनाई है। इस संदर्भ में, भारत सरकार को लद्दाखियों के भवनाओं के प्रति सदैव संवेदनाशील रहना चाहिए। लेह के लिए केंद्र सरकार की नीतियों से वहां के लोगों को यह महसूस नहीं होना चाहिए कि भारतीय शासन चीन की तरह हृदयहीन और दमनकारी हो सकता है। लेकिन क्या हमारे संघी विदेश मंत्रालय में किसी को इसकी जानकारी या परवाह है?

इस बात को अच्छी तरह गांठ बांध लीजिए कि अगर लद्दाखी हमारी तरफ़ नहीं होंगे तो हम चीन के साथ लगी अपनी सीमाओं की रक्षा कर ही नहीं सकते। ऐसे लचर ढंग से भी नहीं जिस तरह से मोदी के कार्यकाल में किया गया है।

मगर कश्मीर, पंजाब, हरियाणा और लद्दाख में नरेंद्र मोदी की सारी विफलताओं से भी ज़्यादा करारी शिकस्त उन्हें उत्तर प्रदेश में मिली है। यहां की शिकस्त के कई मतलब हैं। पहली बात तो यह है कि अब लोकसभा में उत्तर प्रदेश के सांसदों में भाजपा, इंडिया गठबंधन की तुलना में अल्पमत में है।

इसके बाद यह भी गौर करने की बात है कि यहाँ उनकी विफलता राज्य में बेहद लोकप्रिय सरकार के होते हुए मिली है। और यह एक ऐसी पराजय है जिसे मोदी ने अकेले अपने दम पर अंजाम दिया है जबकि  चुनाव शुरू होने के ठीक पहले तक यह माना जा रहा था कि उत्तर प्रदेश में तो भाजपा 80 की 80 सीटें भी जीत सकती है!




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अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी वह क्षण था जब हमने यह समझ लिया कि लोकतंत्र के लिए भाजपा के ख़तरे की आशंका सिर्फ विपक्ष का नारा भर नहीं है।



इंडिया
गठबंधन के नेता इसे स्वीकार नहीं करना चाहेंगे, लेकिन यह एक सच्चाई है कि जैसे ही मोदी ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को जेल भेजा, गठबंधन और मतदाता दोनों एकजुट होकर मोदी के खिलाफ खड़े हो गए। यह अलग बात है कि दिल्ली के वोटरों ने इसके बावजूद सातों सीटों पर मोदी के उम्मीदवारों को ही जिताया। पंजाब, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में चली ज़बरदस्त मोदी-विरोधी लहर का दिल्ली में असर नहीं पड़ा। इसके पीछे मोदी की अंधभक्ति और हिंदुत्ववाद के प्रति हठी निष्ठा के अलावा और कुछ नहीं था।

उत्तर प्रदेश में मोदी की हार के विषय पर लौटते हुए, इंडिया एलायंस ने अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी के विरोध में 31 मार्च को दिल्ली में अपनी रैली के साथ लोगों को जागरूक कर दिया। यह वह क्षण था जब हम, उत्तर भारत के आम नागरिकों ने, यह समझ लिया कि लोकतंत्र के लिए भाजपा के ख़तरे की आशंका सिर्फ विपक्ष का नारा भर नहीं है। यह वह क्षण था, जब रैली को देखते हुए हमने उस खतरे के खिलाफ एक साथ आने में गठबंधन नेताओं की ईमानदारी को देखा। मेरा मानना ​​है कि इससे पहले महाराष्ट्र में हुई इंडिया अलायंस की रैली का भी वहां के लोगों पर यही प्रभाव पड़ा था।




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जैसे ही मोदी ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को जेल भेजागठबंधन और मतदाता दोनों एकजुट होकर मोदी के खिलाफ खड़े हो गए।


मोदी ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी को ठीक से चुनाव प्रचार नहीं करने दिया। ऐसा करके मोदी ने यहां की सातों सीटों पर तो कामयाबी हासिल कर ली, मगर बदले में
उन्हें उत्तर प्रदेश की 29 सीटें गवांनी भी पड़ी।  और तो और, उन्हें अयोध्या (फैजाबाद) की सीट भी गंवानी पड़ी। हो सकता है कि मोदी के लोकतंत्र के प्रति  इस खुले अनादर की वजह से आखिरकार उन्हें दिल्ली की गद्दी भी गंवानी पड़े।

मोदी की इन्हीं हरकतों की वजह से राहुल गांधी, जो लंबे समय से भाजपा की समूची पार्टी मशीनरी और झूठ तंत्र के निशाने पर रहे हैं, रायबरेली में चार लाख से भी ज्यादा वोटों के मार्जिन से जीते हैं, जबकि वाराणसी में खुद प्रधानमंत्री सिर्फ 1.5 लाख के अंतर से ही जीत पाए हैं। इन चुनावों ने अमेठी में स्मृति ईरानी को भी धूल चटा दी। उत्तर प्रदेश में भाजपा को गांधी परिवार के हाथों यह दूसरी शिकस्त झेलनी पड़ी।

अमेठी और रायबरेली, दोनों सीटों पर भाजपा को जिस तरह का अपमान झेलना पड़ा वह तथाकथित प्रतिष्ठा के नाम पर राजनीति करने वाली पार्टी के लिए बहुत बड़ा झटका है।

बसपा का वोट, जो आमतौर पर काफी सांप्रदायिक दिखाई पड़ता है, वह भी सामूहिक रूप से समाजवादी पार्टी और कुछ हद तक कांग्रेस की झोली में चला गया। भाजपा उम्मीद कर रही थी कि बसपा के इस वोट के आधार पर वह सेकुलर वोट की काट निकालने में कामयाब हो जाएगी, मगर बसपा का वोटर अतीत की जातीय प्रतिद्वंद्विता और दुश्मनियों को भुलाकर सपा और कांग्रेस के पास चला गया।


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हिंदुत्ववाद का उछला ताज!



अयोध्या, जो हिंदुत्ववादी राजनीति का मंच था, और 22 जनवरी 2024 को इसके चरम उत्सव का स्थान था, अब खो गई है! यह एक हार ही मोदी का अंत है, और 99 साल की संघी राजनीति का भी। यह इस बात का प्रमाण है कि मोदी के एक दशक के शासन में भारतीय लोगों का मनोबल कितना गिर गया है कि उन्होंने अभी तक इसे नहीं देखा है।

मोदी के राज में भाजपा ने हिंदुत्ववादी राजनीति के सबसे चरमपंथी संस्करण को क्रियान्वित होते हुए देखा है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय, दोनों स्तरों पर मोदी ने इस हिंदुत्ववादी राजनीति को लागू करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मगर अब हम हिंदुत्ववाद की सीमा और विफलताएं, दोनों को साफ़-साफ़ देख सकते हैं। अब भाजपा को नए तरह की राजनीति, और एक नए रास्ते के बारे में सोचना होगा।

मोदी के रहते ऐसा नहीं हो सकता। हमने इस चुनाव अभियान में मोदी की आत्मा को भीतर तक देखा है। जब अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी के बाद जनता के मन में आए बदलाव से मोदी अश्चर्च्य चकित हुए, तब उनके पास ऊलजुलूल बातों के अलावा कुछ नहीं था


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मोदी के पास नफ़रत से भरे जुमलों और विरोधियों के अपमान और गाली-गलौच के अलावा कुछ भी नहीं था।


इतने बड़े देश के दो बार प्रधानमंत्री रह चुके शख्स, अपनी सरकार के रिकॉर्ड के बारे में कोई भी दावा कर सकते थे। लोग तो एक बार फिर उनके झांसे में आने को तैयार थे मगर मोदी के पास नफ़रत से भरे जुमलों और विरोधियों के अपमान और गाली-गलौच के अलावा कुछ भी नहीं था।

जी हाँ, जब दबाव पड़ता है तो मोदी कि सोचने-समझने कि ताक़त जवाब दे जाती है। वह अपने भीतर झांकने की क्षमता ही नहीं रखते। शायद इसलिए कि संघ में उनकी सारी प्रशिक्षण ही इस क्षमता को खत्म करने पर केंद्रित रहा है, जैसा कि संघ परिवार और उसके वैचारिक पूर्वजों की परंपरा रही है, जो शुरू से ही नैतिक और लौकिक आक्रमण के लिए हत्यारों को तैयार करने में लगी हुई है।

अब मेरी उम्र इतनी तो हो चुकी है कि मैं भाजपा को अपने अति आत्मविश्वास की वजह से और लोगों के साथ जुड़े रह पाने की अक्षमता के कारण बार-बार असफलता का घूंट पीते हुए देख चुकी हूं। जनता के साथ न जुड़े रह पाने कि यह बात विडंबनापूर्ण मालूम पड़ती है क्योंकि भाजपा खुद को हिंदुओं और हिंदी-भाषियों की कहीं ज्यादा प्रामाणिक और जमीनी पार्टी के रूप में प्रस्तुत करती रही है

लेकिन हिंदी पट्टी के हिंदुओं ने ही उन्हें बार-बार मात दी है, जबकी भाजपा अपने शीशमहलों में बैठकर इस मुगालते में है कि वह 1000 साल के विजय रथ पर रवाना हो चुकी है! जी हां, केवल 7 हफ्ते पहले श्रीमान मोदी यही दावा कर रहे थे। नैतिक रूप से ध्वस्त और आहत नागरिकों को यह बात याद भी है या नहीं?

ऐसा क्यों है कि भाजपा नेतृत्व का सामान्य रवैया अहंकार का होता हैजो पार्टी राम के नाम पर चलती है, वह रावण की कमजोरियों का शिकार क्यों होती रहती है?



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जो पार्टी राम के नाम पर चलती है, वह रावण की कमजोरियों का शिकार क्यों होती रहती है?


मेरा मानना है कि ऐसा संघ परिवार की उस तथाकथित विचारधारा की वजह से है जो केवल खोखले जुमलों और झूठों का पुलिंदा भर है। सच्चाई और नैतिकता के अभाव में संघियों के पास घमंड के अलावा और कुछ भी बाकी नहीं रहता है।

बेशक, भाजपा इस विश्लेषण से सहमत नहीं होगी, लेकिन वे भी इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि अहंकार उनकी स्थायी समस्या रही है, और जब भी वे सत्ता में आए हैं, यही उनके आत्म-विस्फोट का कारण रहा है।

पुनः, यह भाजपा के लिए आत्मसमीक्षा का समय है। और यह एक ऐसी चीज़ है जिसे मोदी कभी नहीं कर सकते। भाजपा को यह समझना होगा।

जहां तक भाजपा के कोएलिशन पार्टनरों का सवाल है तो आज नहीं तो कल उन्हें यह एहसास हो ही जाएगा की इतिहास की सही दिशा क्या है। खासतौर से उनको जोकि राष्ट्र की सेवा में गुज़री अपनी लंबी जिंदगी के आखिरी छोर पर पहुंच चुके हैं। उनके लिए सस्ते लालच के बदले अपनी सारी मेहनत और विरासत को मटियामेट करने का कोई औचित्य नहीं है।

लिहाज़ा सवाल यह है कि मोदी अभी भी दिल्ली की गद्दी पर क्यों है? वह अभी भी राजनीति में क्यों है? उनका खेल ख़त्म हो गया है चुनाव परिणाम की रात का उनका भाषण सुनकर ऐसा लगा जैसे पुराने किले की छतरी में हुमायूं का सजा हुआ बेजान जिस्म पेश किया गया हो, यह दिखाने के लिए कि वह अभी भी जीवित हैं। यह वैसे ही था जैसे अकबर की गै़रमौजूदगी में किया गया था, ताकि उनके दिल्ली पहुँचने से पहले कहीं बगावत न हो जाए।

मगर अब तिलिस्म टूट चुका है। अब जागने का वक्त है।


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अब तिलिस्म टूट चुका है!




























Comments

  1. अब राजनीति दिलचस्प होगी।अगर मोदी ने नेहरू को रिकॉर्ड छुआ है तो नीतिश ने भी रिकार्ड बनाया है।

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